सोमवार, 31 मई 2021

आत्मकथ्य : जयशंकर प्रसाद

 

                         आत्मकथ्य  : जयशंकर प्रसाद      

जयशंकर प्रसाद से हिंदी पत्रिका हंस के एक विशेष अंक के लिए आत्मकथा लिखने को कहा गया था। प्रेमचंद के संपादन में हंस पत्रिका का एक आत्मकथा विशेषांक निकलना तय हुआ तो प्रसाद जी के मित्रों ने आग्रह किया कि वह भी आत्मकथा लिखें। प्रसाद जी इससे सहमत नहीं थे। छायावादी शैली में लिखी गई  इस कविता में जयशंकर प्रसाद ने जीवन के यथार्थ एवं अभाव पक्ष की मार्मिक अभिव्यक्ति की है। यहाँ कवि ने बताया है कि उनका जीवन एक सामान्य व्यक्ति का जीवन है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो लोगों को प्रेरित कर सके। इस कविता में उन्होंने उन कारणों का वर्णन किया है जिसके कारण वे अपनी आत्मकथा नहीं लिखना चाहते थे।

मधुप गुन-गुनाकर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,

मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।

इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्‍य जीवन-इतिहास

यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्‍यंग्‍य मलिन उपहास

तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।

तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।

 

शब्दार्थ :  मधुप – भंवरा , मन रूपी भंवरा। अनंत – जिसका अंत न हो।  नीलिमा – आकाश का नीला विस्तार। व्यंगय – मलिन – खराब ढंग से निंदा करना। उपहास – हंसी-मजाक।  दुर्बलता – कमजोरी। गागर रीती – खाली घड़ा ,भावहीन मन।

 

 

व्याख्या : मन रूपी भँवरा गुनगुनाते हुए कौन-सी कहानी कह रहा है । जिससे अनेक पत्तियाँ मुरझाकर गिर रही हैं । अर्थात मन में अनेक पुरानी पीड़ा भी यादें जीवित हो उठी हैं । इस अंतहीन नीले आकाश के नीचे असंख्य व्यक्तियों ने जन्म लिया और अपना इतिहास बनाकर चले गए ।असंख्य जीवन यहाँ बनते बिगड़ते रहते हैं । अपने ही जीवन का व्यंग्यात्मक उपहास उड़ाते रहते हैं ।  हमारे विगत जीवन में अनेक ऐसी घटनाएँ हैं जो व्यंग्यात्मक ढंग से हमारा ही उपहास उड़ाती रहती हैं । फिर भी तुम कहते हो कि मैं अपने जीवन के बारे में लिखते हुए अपनी कमजोरियों को भी सबके सामने ला दूँ । लेकिन कवि कहना चाहता है कि मेरे पास कहने के लिए कुछ भी नहीं है । मेरी जीवन रुपी गागर ( घड़ा) पूरी तरह से खाली है । इसलिए इसे सुनकर तुम्हें कोई सुख नहीं मिलेगा ।

शिल्प :

·      खड़ी बोली का प्रयोग

·      तत्सम शब्दावली – मधुप , अनंत नीलिमा , मलिन

·      प्रवाहमयता

·      गागर - रुपक अलंकार

·      झरते पत्ते - प्रतीकात्मकता

·      स्वरमैत्री

किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले-

अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।

यह विडंबना! अरी सरलते हँसी तेरी उड़ाऊँ मैं।

भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।

उज्‍ज्‍वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।

अरे खिल-खिलाकर हँसने वाली उन बातों की।

मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्‍वप्‍न देकर जाग गया।

आलिंगन में आते-आते मुसक्‍या कर जो भाग गया।

शब्दार्थ  :  विडंबना – छलना। प्रवंचना – धूर्तता , धोखा।

व्याख्या : यहाँ पर कवि अपने भोलेपन और दूसरों द्वारा किए गए छल के बारे में नहीं कहना चाहता । क्योंकि इससे दूसरों द्वारा दिए गए धोखे और कवि की सरलता दोनों का उपहास उड़ाना विडंबना होगी । इसलिए कवि कहता है कि जब मेरी आत्मकथा लिखी जाएगी तो मेरे द्वारा की गई भूलें और अन्य व्यक्तियों द्वारा किया गया छल भरा व्यवहार सामने आएगा और ऐसा न हो कि तुम ही अपने आपको वह व्यक्ति समझने लग जाओ अर्थात मेरे जीवन रुपी घड़े को खुशियों से खाली करने वाला समझने लग जाओ । कवि अपने पसुख भरे दिनों की ओर भी संकेत करता है कि मेरे जीवन में भी प्रेम आया था । उस प्रेम भरे पवित्र और आनदमय जीवन की कहानी मैं कैसे कह सकता हूँ । जिस तरह से सपने में मिला सुख छलावा होता है उसी तरह से मेरे जीवन में आया प्रेम भी क्षणिक था जो मेरे पास आते-आते मुझे प्रसन्न करके भाग गया । उसके स्पर्श का आनंद मैं नहीं उठा पाया ।

शिल्प :

·      खड़ी बोली

·      तत्सम शब्दावली : प्रवंचना , स्वप्न

·      दृश्य बिम्ब

·      श्रृंगार रस

·      माधुर्य गुण

·      लाक्षणिकता

·      संबोधन शैली

जिसके अरूण-कपोलों की मतवाली सुन्‍दर छाया में।

अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।

उसकी स्‍मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की।

सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्‍यों मेरी कंथा की?

छोटे से जीवन की कैसे बड़े कथाएँ आज कहूँ?

क्‍या यह अच्‍छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?

सुनकर क्‍या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्‍मकथा?

अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्‍यथा।

शब्दार्थ  :  अरुण कपोल – लाल गाल। अनुरागिनी उषा – प्रेम भरी भोर। स्मृति पाथेय  – स्मृति रूपी संबल।  पंथा – रास्ता राह। कंथा – गुदड़ी , अंतर्मन।

कवि कहता है कि उसके प्रियतम के गालों की लालिमा मदहोश करने वाली थी जिसकी मस्ती भरी छाया थी । प्रातःकालीन उषा भी अपना सौंदर्य बढाने के लिए लालिमा इन्हीं से लिया करती थी । ऐसी प्रेयसी की यादें ही अब मेरे जीवन का सहारा बनी हुई हैं जिनके सहारे मैं एक थके राहगीर की तरह अपना जीवन गुजार रहा हूँ प्यार भरे पल मेरे जीवन में केवल स्पर्श करके चले गए हैं मेरा जीवन बहुत सामान्य रहा है उसमें घटित होने वाली बड़ी बड़ी कहानियों को मैं कैसे कहूँ । मेरी आत्मकथा पढ़कर, मेरी भूली हुई यादों को तुम फिर से इस तरह क्यों कुरेदना चाहते हो जैसे कोई गुदड़ी की सिलाई खोलकर उसके अंदर के टुकडों को अलग अलग करना चाहता हो ।   मेरी यादों रुपी चादर की सिलाई उधेड़कर तार-तार क्यों करना चाहते हो?कवि अपने मित्रों से कहते हैं कि तुम मेरी भोली-भाली, सीधी-साधी आत्मकथा सुनकर भला क्या करोगे? मैंने ऐसा कोई महान कार्य नहीं किया जिसके बारे में मैं कह सकूँ। अभी आत्मकथा लिखने का उचित समय भी नहीं है । मेरी मौन पीड़ा अभी थकी सोई हुई है ।

खड़ी बोली

तत्सम शब्द मौन , व्यथा आदि

लाक्षणिकता

अनुरागिनी उषा लेती थी , और व्यथा का मानवीकरण किया गया है ।

कंथा यहाँ अंतर्मन का प्रतीक है ।

स्वरमैत्री

श्रृंगार रस

माधुर्य गुण

 

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