शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

मनाली प्रवास और हिडिंबा देवी मंदिर https://youtu.be/bcXpAz_jEiA

 

 https://youtu.be/bcXpAz_jEiA


    मनाली प्रवास का दूसरा दिन

                       सुशीला दहिया 


हाँ तो शुरु करते हैं मनाली प्रवास के दूसरे दिन की यात्रा का मनोरम वर्णन । खोजी प्रवृति और घुमक्क्ड़ी स्वभाव मुझे तो मिला ही मेरी सहेली गीता में भी भरपूर मात्रा में है । जब सभी साथी भोरकाल की गहरी और मीठी निंद्रा में मग्न थे तब मैं, गीता और अदिति तीनों मनाली के आसपास के दूर तक फैले हुए सेब के बगीचे देखने के लिए होटल से निकल पड़े । पहाड़ों की तलहटी में बने हुए सुंदर घर  , कलकल बहती हुई व्यास नदी के सौंदर्य को निहारते हुए हम पास के गाँव पहुंचे । स्थानीय निवासी हमें आते - जाते  मुस्कुराकर देख रहे थे और यह एक तरह से हमारा स्वागत किया जा रहा था । यादगार के तौर पर हमने यहाँ के कुछ छायाचित्र लिए और बर्फीली लेकिन सेब की खुशबू से महकती हुई सौंधी हवा का आनंद लेते हुए हम वापस होटल में आ गए क्योंकि आज हमें हिडिंबा देवी  मंदिर की यात्रा भी करनी थी । ठीक 9 बजे हमारा काफिला हिडिंबा देवी के मंदिर की तरफ निकल चुका था । लगभग 15 मिनट के बाद हम मंदिर के प्रवेश द्वार के सामने थे ।


    आज मैं उस पात्र के मूल निवास स्थान पर खड़े होकर अत्यंत रोमांच का अनुभव कर रही थी जिसके बारे में अभी तक मेरी केवल किताबी स्मृतियाँ या सुनी सुनाई यादें ही मन में अंकित थी । प्रवेश द्वार से मंदिर तक का रास्ता बड़े – बड़े खुशबूदार फूलों की महक से आपूरित था । लगभग 15 सीढियों को पार करते हुए हम मंदिर के सामने खड़े थे । विशालकाय देवदार वृक्षों के मध्य चार छतों वाला यह मंदिर बेहद खूबसूरत लग रहा था । सन 1553 में निर्मित यह मंदिर उस पात्र का है जो अपने पुत्र घटोत्कच को पांडवों को सौंपकर मनाली में रहने लगी थी। कहा जाता है कि यहीं पर उनका राक्षस योनी से दैवीय योनी में परिवर्तन हुआ था। पाण्डुपुत्र भीम से विवाह करने के बाद हिडिंबा राक्षसी नहीं रही। वह मानवी बन गई। और कालांतर में मानवी से देवी बन गई। मंदिर के भीतर एक प्राकृतिक चट्टान है जिसे देवी हिडिम्बा का स्थान माना जाता है। इसी चट्टान पर देवी हिडिम्बा के पैरों के चिन्ह मौजूद हैं। चटटान को स्थानीय बोली में 'ढूंग कहते हैं शायद इसलिए देवी को 'ढूंगरी देवी भी कहा जाता है।

     

यहाँ पर मैंने एक स्थानीय महिला से बातचीत की तो पता चला कि पास में ही एक विशालकाय चट्टान है जहाँ पर कभी पानी का एक विशाल कुंड भी होता था जहाँ देवी स्नान करती थी लेकिन आज वह सूख चुका है । यह बताते हुए वह उदास भी हो गई थी क्योंकि ये शायद विडंबना ही है कि हम अपनी धरोहर को संभालकर नहीं रख पा रहे हैं और धीरे-धीरे उनसे वंचित होते जा रहे हैं । यहीं पर घटोत्कच का भी मंदिर बना हुआ है । मंदिर में चारों तरफ दीवारों पर अब दुर्लभ हो चुके जानवरों के सींग लगे हुए दिखाई दे रहे थे । मंदिर के  बाईं तरफ एक और विशाल चट्टान है । उसकी विशालता और भव्यता के समकक्ष छायाचित्रों के माध्यम से अपने को ले जाने के लिए सभी में होड़ लगी हुई थी । खासकर महिलाएँ अपने आप को देवी के ज्यादा करीब महसूस कर रही थी और स्मृति का एक भी मौका छोड़ना नहीं चाहती थी । अब इस विशाल चट्टान पर चढना और उतरना भी सभी के लिए खासा रोमांचक हो गया था । लेकिन सहयोग की भावना का परिचय सभी ने दिया और चट्टान पर चढाई – उतराई की साहसिक यात्रा संपन्न हुई । मंदिर के आगे देवदार के लंबे और विशालकाय पेड़ों ने हमारा स्वागत किया । इतना सुंदर दृश्य तो आजतक हम फिल्मों में ही देख पाते थे लेकिन आज प्रत्यक्ष आनंद ले पा रहे थे जो मन को प्रफुल्लित कर रहा था । बच्चे अपने अपने फोटो लेने और वीडियो बनाने में मग्न थे । हम सभी शिक्षिकाएँ थी । बच्चों को पढाते वक्त सहायक सामग्री कैसे , कौन सी और कहाँ से ली जा सकती है यह विचार हमारे मन में हमेशा मौजूद रहता है जो यहाँ भी दिखाई दे रहा था । देवदार के पेड़ों की भव्यता और विशालता को नमन करते हुए उसके प्रति अपने कर्त्तव्य को मन में रखते हुए हम सब उसे अपने छायाचित्रों और वीडियो में हमेशा के लिए कैद कर रही थी ।

सचमुच प्रकृति और अध्यात्म का सुंदर और अनोखा मेल यहाँ दिखाई दे रहा था । यहाँ आकर लग रहा था कि मैं महाभारत के समय में जी रही हूँ । पांडवों और माँ हिडिंबा की उपस्थिति का पवित्र अहसास मुझे गौरव की अनुभूति करा रहा था ।

हमारी संस्कृति , हमारी परंपराएँ , हमारी धरोहर कितने समृद्ध हैं हम ! क्या हम अपनी आने वाली पीढी को भी इतना ही समृद्ध महसूस कराने के लिए  प्रयासरत हैं ?   

ये देखिए हमारी भावी पीढी प्रकृति के साथ तारतम्य स्थापित करते हुए ---

















रविवार, 11 जुलाई 2021

ROHTANG PASS STORY रोहतांग में बिताए वो अविस्मरणीय पल




              रोहतांग में बिताए वो अविस्मरणीय पल

                                                            सुशीला दहिया






रोहतांग दर्रे के बारे में अभी तक जो सुना और पढा था उससे यहाँ जाने की लालसा हमेशा बनी रहती थी । यहाँ के रोमांचक किस्से , अनेक दंतकथाएँ , जोरावर सिंह जैसे पात्र इसके नाम का अर्थ मुझे आमंत्रित करते रहते थे ।  और फिर 9 जुलाई , 21 को मेरा यहाँ आने का सपना पूरा होने जा रहा था जब मैं अपने परिवार और पूरी मित्र मंडली के साथ मनाली से रोहतांग जाने के लिए प्रस्थान कर रही थी । दर्रा यानी वह संकरा रास्ता, जिससे होकर पहाड़ियों को पार किया जाता है। दर्रे को स्थानीय भाषा में जोत भी कहते हैं। लद्दाखी भाषा (भोटी) में रोहतांग का अर्थ 'लाशों का ढेर' होता है। यह सच है कि इस दर्रे से पैदल गुजरते हुए अनेक जिज्ञासु और साहसी लोगों ने अपने प्राण गंवाए हैं। शायद इसीलिए इसका नाम रोहतांग पड़ गया । वैसे इसका पुराना नाम  'भृगु-तुंग' बताया गया है !  यह दर्रा मौसम में अचानक और अत्यधिक बदलावों के कारण भी जाना जाता है।

हाँ तो हम सब मित्रगण सपरिवार सुबह 09:00 बजे रोहतांग जाने के लिए होटल के बाहर खड़े थे । तभी ड्राइवर ने गाड़ी हमारे सामने लाकर रोक दी । सभी गाड़ी में जाकर बैठ गए । खुशी और रोमांच सभी के चेहरे पर दिखाई दे रहा था । मनाली शहर को पार करते हुए अनेक झरनों , कल-कल करती बहती हुई व्यास नदी और कभी भी गिरने का भान करती हुई शिलाएँ देखकर मन में एक सिहरन सी पैदा हो रही थी। रास्ते में जमीं हुई बर्फ ग्लेशियर का रूप ले रही थी । हालांकि मेरी सहेली मीनू इसे ग्लेशियर नहीं मान रही थी । कई जगह पर सड़क के बीच में आ गई बर्फ को काटकर रास्ता बनाया गया था । हम सब गाड़ी में से झाँककर उस ऊँची बर्फीली चोटी को निहार रहे थे जिसका निर्माण परीकथाओं की तरह बादलों, बर्फ और उनमें से झाँकती मटमैली आकृति से हो रहा था और जहाँ तक पहुँचने का खयाल हमारे मन में रोमांच पैदा कर रहा था । एक तरफ घाटी तो कभी दोनों तरफ घाटी , अचानक आ जाने वाला तीव्र मोड़ मन में रोमांच और सिहरन दोनों उत्पन्न कर रहे थे । रास्ते भर बच्चों और हमारे बीच पैराग्लाइडिंग करने के विषय पर लगातार बहस जारी थी क्योंकि बच्चे पैराग्लाइडिंग करना चाहते थे और हम उन ऊँची बर्फीली चोटियों का आमंत्रण महसूस कर रहे थे । और वह रोमांचकारी पल भी आ गया जब पहाड़ों पर लगी हुई रंग-बिरंगी झंडियों ने हमारा स्वागत किया । मधु कांकरिया के यात्रा वृतांत में इन्हें खुशी और शुभ कार्य के संदर्भ में लगाई जाने वाली बौद्ध पताकाएँ कहा गया है ।

अंततः हमने रोहतांग दर्रे की पथरीली और बर्फ से ढकी हुई जमीन पर कदम रखा । मन प्रसन्नता से खिला जा रहा था । बर्फीले कणों को समेटे हवा से हमारा सामना हो रहा था । सभी के चेहरे लाल हो चुके थे । तेज हवा के कारण सभी के बाल हवा के संग-संग नृत्य कर रहे थे । जल्दी ही हम सबने अपनी अपनी जैकेट पहन ली मीनू और शैलजा ने तो कुल्लू की टोपी ही खरीद ली ।अब हम आस-पास बर्फ की चादर ओढे फैली हुई पहाड़ियों पर चढने की योजना बनाने लगे । कुछ साथियों ने घोड़े पर चढकर घूमने की इच्छा जताई तो कुछ मुझ जैसे साथी जो प्रकृति को नजदीक से महसूस करना चाहते थे वे पैदल चलने को तैयार हो गए। सभी साथी वहाँ के नैसर्गिक नजारों को अपने अपने कैमरों में कैद कर रहे थे । 

मैंने भी अपना मोबाइल निकाला और वहाँ के स्वप्निल दृश्यों को उसमें भरती चली गई । अध्यात्म और भौतिकता का अनौखा संगम था वहाँ पर। मेघदूत के बादल यहाँ पर सच में ही मनुष्य के पास आकर उसे ईश्वर का संदेश दे रहे थे और हम भी इस ईश्वरीय शक्ति को अनुभव कर पा रहे थे ।  सँभल सँभलकर कदम जमाते हुए हम लगातार आगे बढ रहे थे । अक्की , चिंकी और निक्की लगातार हमारे साथ बनी हुई थी और चहचहाते हुए हमारी थकान को कम कर रही थी । दहिया साहब इस रोमांचक कार्य में अपना योगदान साथ चलकर दे रहे थे । वैसे तो इस पूरी यात्रा की  कैप्टन अंजली और शैलजा थी जो अपनी जोशीली आवाज और सूझबूझ से इस यात्रा का नैतृत्व कर रही थी पर पैदल चलने के मिशन में बच्चों ने ये रुतबा मुझे दे दिया था । खुशी अपनी चुलबुली शरारतों से तन-मन की थकान को पल में छूमंतर कर देती थी ।

कहीं पर बर्फ जमीं हुई और कहीं पर बर्फ पिंघलकर झील का आभास देती हुई । दैत्याकार चट्टान प्रकृति को ही सिरमौर सिद्ध करने की गवाही दे रही थी । मनुष्य को अपनी पीठ पर ले जाते घोड़े भी उन चट्टानों पर मजबूती से पैर जमाते हुए प्रकृति पर मानव को विजय पाने में अपना योगदान दे रहे थे । अंततः हमारा सामना विशालकाय ग्लेशियर से हुआ जो तलहटी से लेकर पहाड़ी की गोद में दूर तक फैला हुआ था । हम अपने सामान्य जूतों में ही उस ग्लेशियर पर कदम जमा जमाकर आगे चलने का प्रयास करने लगे ।  पहले से बने हुए पद चिह्नों के हल्के गड्ढों में पैर जमाए हुए मैं आराम से आगे बढ रही थी लेकिन मन के एक कोने में डर अवश्य था कि अगर मैं फिसल गई तो नीचे पहाड़ी के चरणों में स्थान पाऊँगी । मेरे साथ साथ सभी बच्चे आ गए और बर्फ के गोले बनाकर एक दूसरे पर फेंकने लगे । इतनी देर में मेरी सहेली शैलजा अपने नाम को सार्थक करते हुए , गीता पहाड़ी सौंदर्य में वृद्धि करते हुए , चिंकी और मुनमुन चहचहाते हुए वहाँ पर आ गई । हम सब महिलाएँ अपनी उम्र को भूल चुकी थी और बच्चों की बालसुलभ क्रीड़ाओं में अपना भरपूर योगदान दे रही थी । ऊपर चढते हुए मैंने बर्फ की परत के नीचे से पिंघलकर आते हुए पानी को देखा । मन किया कि इस बर्फ की परत पर चला जाए लेकिन तुरंत मन में विचार कोंधा कि ऐसा न हो कि मैं ज्योंहि इस पर कदम रखूं त्योंहि नीचे पाताल लोक में पहुँच जाऊँ । और मैंने अपना बढा हुआ कदम पीछे कर लिया । मैं कल्पना के संसार में जा चुकी थी । दूर तक फैली हुई पीर पंजाल की पर्वत श्रृंखलाओं , उनके साथी बनकर उनके ऊपर नहीं बल्कि अगल बगल चलने वाले बादलों के अद्वितीय सौंदर्य को मैं पूरी तरह अपने मन में चित्रित कर लेना चाहती थी हम भूल चुकी थी कि यहाँ पल पल मौसम बदलता है और कभी भी बर्फिला तूफान भी आ सकता है । अब हवा में बर्फ के कण बढते जा रहे थे । लेकिन इसकी परवाह न करते हुए हम ग्लेशियर के ऊपरी बिंदु तक पहुँचने का प्रयास कर रहे थे ।

इस समय मुझे रामधारी सिंह दिनकर की कविता चाँद और कवि  की पंक्तियाँ याद आ रही थी  -----------

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी

कल्पना की जीभ में भी धार होती है,

वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,

स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

 

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे-

रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,

रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,

स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।


 

और सचमुच ही हम प्रकृति के कठोर पक्ष की परवाह न करते हुए उसके सौंदर्य में पूरी तरह खो चुके थे । लेकिन एकदम से वातावरण में बदलाव हुआ और काले बादलों से सारी पर्वतीय स्थली ढक गई । हल्की हल्की बूँदाबांदी शुरु हो गई । मन मसोसकर हमें वापस नीचे की तरफ आना पड़ा । नीचे आए तो हमारे बाकी साथी मैगी , राजमा चावल , कॉफी , कढी चावल और चाय का आनंद ले रहे थे । हमें भी भूख का अहसास हुआ और राजमा चावल खाकर अनमने ढंग से मनाली की ओर प्रस्थान किया ।  फिर कब बुलाओगे रोहतांग ?