मनाली प्रवास का दूसरा
दिन
सुशीला दहिया
हाँ तो शुरु करते हैं मनाली प्रवास के दूसरे दिन
की यात्रा का मनोरम वर्णन । खोजी प्रवृति और घुमक्क्ड़ी स्वभाव मुझे तो मिला ही मेरी सहेली
गीता में भी भरपूर मात्रा में है । जब सभी साथी भोरकाल की गहरी और मीठी निंद्रा में
मग्न थे तब मैं, गीता और अदिति तीनों मनाली के आसपास के दूर तक फैले हुए सेब के बगीचे
देखने के लिए होटल से निकल पड़े । पहाड़ों की तलहटी में बने हुए सुंदर घर , कलकल बहती हुई व्यास नदी के सौंदर्य को निहारते हुए हम पास के गाँव
पहुंचे । स्थानीय निवासी हमें आते - जाते मुस्कुराकर देख रहे थे और यह एक तरह से हमारा
स्वागत किया जा रहा था । यादगार के तौर पर हमने यहाँ के कुछ छायाचित्र लिए और बर्फीली लेकिन
सेब की खुशबू से महकती हुई सौंधी हवा का आनंद लेते हुए हम वापस होटल में आ गए क्योंकि
आज हमें हिडिंबा देवी मंदिर की यात्रा भी करनी थी । ठीक 9 बजे हमारा काफिला हिडिंबा
देवी के मंदिर की तरफ निकल चुका था । लगभग 15 मिनट के बाद हम मंदिर के प्रवेश द्वार के सामने
थे ।
आज मैं उस पात्र के मूल निवास स्थान पर खड़े होकर अत्यंत रोमांच का अनुभव कर रही थी जिसके बारे में अभी तक मेरी केवल किताबी स्मृतियाँ या सुनी सुनाई यादें ही मन में अंकित थी । प्रवेश द्वार से मंदिर तक का रास्ता बड़े – बड़े खुशबूदार फूलों की महक से आपूरित था । लगभग 15 सीढियों को पार करते हुए हम मंदिर के सामने खड़े थे । विशालकाय देवदार वृक्षों के मध्य चार छतों वाला यह मंदिर बेहद खूबसूरत लग रहा था । सन 1553 में निर्मित यह मंदिर उस पात्र का है जो अपने पुत्र घटोत्कच को पांडवों को सौंपकर मनाली में रहने लगी थी। कहा जाता है कि यहीं पर उनका राक्षस योनी से दैवीय योनी में परिवर्तन हुआ था। पाण्डुपुत्र भीम से विवाह करने के बाद हिडिंबा राक्षसी नहीं रही। वह मानवी बन गई। और कालांतर में मानवी से देवी बन गई। मंदिर के भीतर एक प्राकृतिक चट्टान है जिसे देवी हिडिम्बा का स्थान माना जाता है। इसी चट्टान पर देवी हिडिम्बा के पैरों के चिन्ह मौजूद हैं। चटटान को स्थानीय बोली में 'ढूंग कहते हैं शायद इसलिए देवी को 'ढूंगरी देवी भी कहा जाता है।
यहाँ पर मैंने एक स्थानीय महिला से बातचीत की तो पता चला कि पास में ही एक विशालकाय चट्टान है जहाँ पर कभी पानी का एक विशाल कुंड भी होता था जहाँ देवी स्नान करती थी लेकिन आज वह सूख चुका है । यह बताते हुए वह उदास भी हो गई थी क्योंकि ये शायद विडंबना ही है कि हम अपनी धरोहर को संभालकर नहीं रख पा रहे हैं और धीरे-धीरे उनसे वंचित होते जा रहे हैं । यहीं पर घटोत्कच का भी मंदिर बना हुआ है । मंदिर में चारों तरफ दीवारों पर अब दुर्लभ हो चुके जानवरों के सींग लगे हुए दिखाई दे रहे थे । मंदिर के बाईं तरफ एक और विशाल चट्टान है । उसकी विशालता और भव्यता के समकक्ष छायाचित्रों के माध्यम से अपने को ले जाने के लिए सभी में होड़ लगी हुई थी । खासकर महिलाएँ अपने आप को देवी के ज्यादा करीब महसूस कर रही थी और स्मृति का एक भी मौका छोड़ना नहीं चाहती थी । अब इस विशाल चट्टान पर चढना और उतरना भी सभी के लिए खासा रोमांचक हो गया था । लेकिन सहयोग की भावना का परिचय सभी ने दिया और चट्टान पर चढाई – उतराई की साहसिक यात्रा संपन्न हुई । मंदिर के आगे देवदार के लंबे और विशालकाय पेड़ों ने हमारा स्वागत किया । इतना सुंदर दृश्य तो आजतक हम फिल्मों में ही देख पाते थे लेकिन आज प्रत्यक्ष आनंद ले पा रहे थे जो मन को प्रफुल्लित कर रहा था । बच्चे अपने अपने फोटो लेने और वीडियो बनाने में मग्न थे । हम सभी शिक्षिकाएँ थी । बच्चों को पढाते वक्त सहायक सामग्री कैसे , कौन सी और कहाँ से ली जा सकती है यह विचार हमारे मन में हमेशा मौजूद रहता है जो यहाँ भी दिखाई दे रहा था । देवदार के पेड़ों की भव्यता और विशालता को नमन करते हुए उसके प्रति अपने कर्त्तव्य को मन में रखते हुए हम सब उसे अपने छायाचित्रों और वीडियो में हमेशा के लिए कैद कर रही थी ।
सचमुच प्रकृति
और अध्यात्म का सुंदर और अनोखा मेल यहाँ दिखाई दे रहा था । यहाँ आकर लग रहा था कि मैं
महाभारत के समय में जी रही हूँ । पांडवों और माँ हिडिंबा की उपस्थिति का पवित्र अहसास
मुझे गौरव की अनुभूति करा रहा था ।
हमारी संस्कृति , हमारी परंपराएँ , हमारी धरोहर कितने समृद्ध हैं हम ! क्या हम अपनी आने वाली पीढी को भी इतना ही समृद्ध महसूस कराने के लिए प्रयासरत हैं ?
ये देखिए हमारी भावी पीढी प्रकृति के साथ तारतम्य स्थापित करते हुए ---









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