उषा - शमशेर बहादुर सिंह
प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे
भोर का नभ
राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)
बहुत काली सिल जरा से लाल केसर से
कि जैसे धुल गई हो
स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
मल दी हो किसी ने
नील जल में या किसी की
गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो।
और …….
जादू टूटता हैं इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा हैं।
शमशेर बहादुर सिंह का जन्म मुजफ्फरनगर
के एलम गाँव में हुआ। शिक्षा देहरादून तथा प्रयाग में हुई। ये हिंदी तथा उर्दू के
विद्वान हैं। प्रयोगवाद और नई कविता के कवियों की प्रथम पंक्ति में इनका स्थान है।
इनकी शैली अंग्रेजी कवि एजरा पाउण्ड से प्रभावित थे । शमशेर बहादुर सिंह के कवि पर उनका चित्रकार रूप सबसे अधिक हावी रहता
है। उनकी कविता चित्रमय होती है । और इन चित्रों में रंग ही नहीं गति भी महसूस
होती है ।
शमशेर बहादुर सिंह का काफी समय उत्तर
प्रदेश के गोंडा जनपद में बीता था जहाँ उनके पिता सरकारी सेवा में थे। इसलिए
प्रकृति और ग्रामीण जन-जीवन उनकी संवेदना में रचे बसे हैं।‘उषा’ कविता को इसी आलोक
में देखने की कोशिश है। इस कविता में उन्होंने सुबह के सौन्दर्य का बहुत सुंदर चित्र
खींचा है। पल-पल बदलते आसमान का ऐसा चित्र उकेरा है कि भोर होने के साथ ही पूरा ग्रामीण
परिवेश साकार हो उठा है।
भोर की प्रथम बेला के आकाश से कविता आरंभ
होती है - ‘प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे’ - सुबह का प्रथम प्रहर है। आसमान की
रंगत बदलनी शुरू हो गई है। उसमे नीलिमा और अँधेरे की कालिमा का मिला जुला प्रभाव है।
कवि उसकी कल्पना ‘शंख’ के रूप में करता है। प्रभात वेला के आकाश के लिए एक नयी
उपमा– नीला शंख। आसमान बहुत नीला है लेकिन उसकी छवि ‘शंख’ जैसी है।कविता की इस
पहली पंक्ति में प्रयुक्त बिम्ब ‘बहुत नीला शंख’ प्रात:कालीन आसमान के रंग-बोध के
साथ-साथ वातावरण की शुद्धता और पवित्रता के लिए भी सार्थक है। यहाँ आकाश उपमेय है
तथा नीला शंख उपमा है। शंख समुद्र से
उत्पन्न होता है। इसलिए ताजे शंख में एक गीलापन और ताजगी होगी। ऐसा ही ताजगी आसमान
में दिखाई देती है । यह मंदिरों से उठने
वाली शंखध्वनि साथ के गाँव की सुबह का यह चित्रण है।
“भोर का नभ राख से लीपा हुआ चौका (अभी
गीला पड़ा है)”
भोर के प्रथम प्रहर में ही गाँव के लोग
उठ जाते हैं, उनका दैनिक क्रिया-कलाप प्रारम्भ हो जाता है।
यह समय रात के अंधेरे और सुबह के उजाले का संधिस्थल है और इस समय आसमान का रंग
‘राख के रंग’ के समान प्रतीत होता है जिसमें ओस के कारण थोड़ी नमी है । यहाँ कोष्ठक
में जिस गीलेपन की बात कवि ने की है वह ओस की नमी की ओर संकेत है।
‘बहुत काली सिल जरा से लाल केसर से/ कि जैसे धुल
गई हो’।
आसमान में थोड़ी सी और हलचल होती है और
सूर्योदय से पूर्व की लालिमा छाने लगती है। इस समय कवि को आसमान में ‘काली सिल पर
घिसे हुए लाल केसर की लालिमा’ का बिम्ब दिखाई पड़ता है। ‘सिल’ ग्रामीण जीवन में
महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यहाँ कवि गाँव
की महिलाओं के चूल्हे-चौके की व्यस्तता और आसमान को एक साथ निहार रहा है और उनके
चित्र को अंकित करता जा रहा है।
“स्लेट पर लाल खड़िया चाक / मल दी हो
किसी ने” । यहाँ कवि की दृष्टि में गाँव के बच्चों का भोली-भाली छवि भी है जो
सुबह-सुबह अपनी स्लेट और चाक के साथ पढ़ने बैठ जाते हैं। स्लेट जैसे आसमान में लाल
खड़िया चाक का रंग जैसे घरों के बच्चों के जीवन का सूर्योदय निश्चित कर रहे हों कि
इस शिक्षा से ही जीवन में लालिमा अर्थात उज्ज्वल भविष्य का निर्माण होगा।
“नील जल में या किसी की/ गौर झिलमिल देह/ जैसे
हिल रही हो”
सूर्य अभी पूरी तरह निकला नहीं है और उसकी
सुनहरी आभा नीले आसमान में ऐसे चमक रही है जैसे कोई गौर वर्ण व्यक्ति स्वच्छ नील
जल में स्नान कर रहा हो। पूरा आसमान नीले सरोवर की भाँति दिखाई पड़ता है और ‘सूर्य’
एक सोने जैसी आभा लिए व्यक्ति ।
“और / जादू टूटता है इस उषा का/ अब
सूर्योदय हो रहा है।” भोरकाल के जिस जादुई सौन्दर्य का प्रभाव सभी पर दिखाई देता
है वह अब सूर्योदय के साथ ही टूट जाएगा । यह प्रात:काल के जादुई प्रभाव और उसकी
समाप्ति का संधिस्थल है। इसलिए कवि ने सूर्योदय होने के साथ ही सुबह के दिव्य
सौन्दर्य के टूट जाने की घोषणा की है। ग्रामीण लोग भी अब अपने दिन भर के कार्यों
में व्यस्त हो जाएंगे।
इस तरह हम देखते हैं कि खूबसूरत
बिम्बों से सजी यह कविता ‘प्रात:कालीन सौन्दर्य’ और ‘ग्रामीण जीवन को एक साथ लेकर
चलती है।
कविता का भाव
और शिल्प
1
प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे
भोर का नभ
राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)
भाव सौन्दर्य- यहाँ कवि ने भोरकाल
अर्थात सूर्योदय से पूर्व आकाश में निरंतर होते बदलावों को शब्दों में बाँधा है । उस समय को दो उपमाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है । शुद्धता और पवित्रता
में नीले शंख और नमी में राख से लिपे हुए चौके की कल्पना की है । इसके साथ ही भोरकाल
की गति को गाँव के जीवन में हो रहे दैनिक
क्रियाकलापों से जोड़ने का प्रयास किया है ।
काव्य सौन्दर्य -
· मुक्त छंद का प्रयोग है
· नभ,प्रात आदि तत्सम शब्दावली
· लीपा,चौका आदि तद्भव शब्दों का प्रयोग
· बहुत नीला शंख जैसे’ में उपमा अलंकार है
· राख से लीपा हुआ चौका में उपमा अलंकार है
· दृश्य बिंब है
· कवि ने प्रकृति का मनोहारी चित्रण किया है।
· ग्रामीण परिवेश का सहज चित्रण
2
बहुत काली सिल जरा से लाल केसर से
कि जैसे धुल गई हो
स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
मल दी हो किसी ने
भाव सौन्दर्य
कवि ने यहाँ भोर के समय आकाश की कालिमा में सूर्योदय होने के समय
पल-पल बढ रही लालिमा को जीवंत करने की कोशिश की है । सिलबट्टे को केसर से धोने की
उपमा और स्लेट पर लाल खड़िया घिसने की उपमा
गाँव के गतिशील वातावरण को दर्शाती है ।
काव्य सौन्दर्य -
· मुक्त
छंद का प्रयोग है
· नभ,प्रात आदि तत्सम शब्दावली
· लीपा,चौका आदि तद्भव शब्दों का प्रयोग
· पूरे काव्यांश में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
· दृश्य बिंब है
· ग्रामीण परिवेश का सहज चित्रण
3
नील जल में या किसी की
गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो।
और …….
जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।
भाव सौन्दर्य
कवि ने भोरकाल के पल-पल बदलते दृश्य को शब्दों में अभिव्यक्त किया
है। सूर्योदय के समय आकाश का नीला रंग और उसमें निकलते सूर्य की सफेद आभा ऐसी लगती
है मानो नीले जल में किसी गौर वर्ण व्यक्ति
की सुंदर देह हिल रही हो। और कुछ समय बाद धीरे धीरे सूर्योदय हो जाता है तो भोरकाल का पल-पल बदलता सौंदर्य भी समाप्त हो जाता है।
काव्य सौन्दर्य -
· मुक्त छंद का प्रयोग है
· दृश्य बिंब है
· कवि ने नए बिम्बों एवं नए उपमानों का प्रयोग
किया है
· ‘ गौर झिलमिल देह ,जैसे
हिल रही हो।’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है
· प्रकृति चित्रण