बुधवार, 8 सितंबर 2021

मन रे तू सच्ची बात बता / तू मुझ में है या मैं तुझ में हूँ ? स्वरचित कवि...



   मन के भाव

1

        ओ मेरे पागल मन

ये जीवन नदिया की धारा है

हर बाधा से टकराना है

सहज प्रवाह मिलता कहाँ

कहीं तुफानी है , कहीं अठखेली है ।

 

अवरोधों से घबराकर कभी

धारा का प्रवाह होता मंद नहीं

उनके वजूद को धत्ता बताती है

बना राह ये लरजती जाती है ।

 

जितनी बड़ी आती रुकावट है

उतनी धारा बनती तुफानी है

प्रचंड वेग और अदम्य ताकत से

ललकार उसे गरजती जाती है ।

 

दोनों ही रुपों में जीवन

हर पल विकसित होता है

जहाँ काँटे हैं टकराहट है

फूलों में मुस्कराहट खिलती हैं ।

  

2

ओ मेरे पापा

दिल का एक कोना

     होकर मुझसे अलग

           रहता तुम्हारे पास सदा ही।

तुम्हारी ही बातें करता

     उन ख्वाबों को बुनता रहता

           देखे थे जो तुमने मेरे लिए

जिंदगी की तपन जब बढती है तो

     दिल का वही कोना

        समेट लेता है मुझे पिता बनकर

दिल का वही कोना

     जहाँ पापा तुम हो , मैं हूँ

        माँ , बहन और बिछड़ा भाई है

जिंदगी चलती जा रही अपनी ही लय में

     लेकिन पापा मैं आज भी

              तुम्हारी छोटी पर मजबूत बिटिया हूँ 

दिल का वो कोना हमेशा

      आबाद है तुमसे लेकिन

           सच तो ये है वही मैं हूँ

महकता रहेगा ये कोना

      तुम्हारी मुस्कराहट से हमेशा   

        और बना रहेगा मेरा वजूद भी ॥      +

 

  

                3

ओ माँ

माँ मिल गया खुशियों का खज़ाना

                जब तुम मुस्कुराई ,

माँ बदल गया मन का तराना

                जब तुम गुनगुनाई ,

तुम्हारी गहरी पनीली आँखों में

                एक चमक सी आई ,

जब दूर बैठी अपनी बिटिया के

             आने की सुगबुगाहट आई  

जब मिल बैठते हैं सारे प्रियजन तुम

              लम्हा-लम्हा जीती हो ,

अपना सबकुछ न्योछावर करने को

              तत्पर हमेशा रहती हो ,

ओ माँ तुम्हें हम क्या दें जन्मदिन पर

             हम सब तो रीती रीती

बस यही श्वास-प्रश्वास माँगे खुदा से

            रहे तू हमेशा मुस्कुराती ॥

 


4     मन रे .......................

               मन रे तू सच्ची बात बता 

                        तू मुझ में है या मैं तुझ में हूँ

       मालिक बनकर के बैठा है 

                        सुनता मेरी तू एक नहीं । 

    मैं आज में जीना चाहती हूँ 

                        तू यादों में उलझाता है 

    मेरे किए धरे पर आखिर 

                        क्यों मिट्टी फैलाता है

        क्यों तू आखिर बिदक-बिदककर 

                        उसी दौर में जाकै बैठा है 

        जहाँ कच्चे धागे से बँधा एक भाई 

                        बहनों को संबल देता है 

    जो बिन बोले ही बहुत-सी बातें 

                        आँखों से कह जाता था 

    मुझसे छोटा होकर भी वो तब 

                        जाने क्यों बड़ा हो जाता था

      छोटी हो या बड़ी बात हो 

                        सबमें शामिल मुझे किया 

    ये कच्चा धागा टूट चुका है 

                    कहे बिना क्यों चला गया

      मन रे तू अब वापस आ जा 

                       मैंने सब स्वीकारा है 

      उसकी यादों के ही सहारे 

                    हर राखी को सँवारा है 

    मन के साधे सब सधे 


                    लेकिन तू सधता ही नहीं 



      मन रे तू सच्ची बात बता 


                        तू मुझ में है या मैं तुझ में हूँ


      मालिक बनकर के बैठा है 

                        सुनता मेरी तू एक नहीं ।                           

सुशीला दहिया 

 


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