सुदामा
चरित की व्याख्या
काव्यांश -1
सीस
पगा न झँगा तन में, प्रभु! जाने को आहि बसे
केहि ग्रामा।
धोती
फटी-सी लटी दुपटी, अरु
पाँय उपानह को नहिं सामा।
द्वार
खड़ो द्विज दुर्बल एक, रह्यो
चकिसों बसुधा
अभिरामा।
पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा
व्याख्या- जब सुदामा कृष्ण से
मिलने के लिए आते हैं और उनके महल
के सामने खड़े हो
जाते हैं तो द्वारपाल
महल के अंदर जा कर श्री कृष्ण को आगंतुक
के बारे में इस तरह बताया कि हे प्रभु! द्वार पर एक व्यक्ति खड़ा है। उसके
सिर पर पगड़ी नहीं है और शरीर पर ढीला-सा कुरता पहना हुआ है। न जाने वह किस गाँव से
आया है। वह फटी हुई धोती और फटा
हुआ गमछा
पहने हुए है। उसके पैरों में जूते भी नहीं हैं। कमजोर सा ब्राह्मण हैरान हो कर यहाँ की धरती और महलों की सुंदरता
देख रहा है । अपना नाम सुदामा बता रहा है और दीनदयाल अर्थात राजा कृष्ण
का निवास स्थान पूछ रहा है ।
काव्यांश-2
ऐसे बेहाल बिवाइन सों, पग कंटक जाल
लगे पुनि जोए।
हाय! महादुख पायो सखा, तुम आए इतै न
कितै दिन
खोए।
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिकै
करुनानिधि रोए।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सों पग धोए।
व्याख्या –कृष्ण
सुदामा के विषय में सुनकर दौड़कर बाहर आए और उसका स्वागत करते हुए उसके पैर धोने
लगे तो उसके बिवाइयों से भरे पैरों में
चुभे कांटे खोजकर निकालने लगे । कृष्ण प्रेम से बोले कि मित्र तुमने बहुत दुख पाया है
। तुम इतने दिन कहाँ रहें। यहाँ क्यों नहीं आए ?
सुदामा का ऐसी हालत देख कर दया के सागर श्री
कृष्ण दया से रो पड़े। उन्होंने सुदामा के पैर धोने के लिये मँगाई परात को तो हाथ भी नहीं लगाया और अपने आँसूओं से ही पैर धो दिए
।
काव्यांश-3
कछु भाभी हमको
दियो, सो तुम काहे न
देत।
चाँपि पोटरी
काँख में, रहे कहो केहि
हेतु।।
आगे चना
गुरुमातु दए ते, लए तुम चाबि हमें नहिं दीने।
स्याम कह्यो मुसकाय सुदामा सों, ‘‘चोरी की बान
में हौं जू प्रवीने।।
पोटरी काँख में
चाँपि रहे तुम, खोलत नहिं सुधा रस भीने।
पाछिलि बानि
अजौ न तजो तुम, तैसई भाभी के तंदुल कीन्हें।।”
व्याख्या – श्री कृष्ण सुदामा से फिर कहते हैं कि
मेरी भाभी ने जो मेरे लिए भेजा है उसे तुम
मुझे क्यों नहीं दे रहे हो ? मेरे लिए भेजी
गई पोटली को बगल में क्यों छिपा रहे हो। कृष्ण मुस्कुराकर कहते हैं कि चोरी करने
में तुम और भी कुशल हो गए हैं जैसे बचपन में उनकी गुरु माता द्वारा दिए चने मुझे न देकर खुद ही खा लिए थे, वैसे ही वह आज भी उनके द्वारा भेजे गए सुगन्धित
अमृत की खुशबू युक्त तोहफे को मुझे क्यों नहीं दे रहे हो ? तुम्हारी यह पुरानी आदत गई नहीं है ।
काव्यांश-4
वह पुलकनि,
वह उठि मिलनि,
वह आदर की बात।
वह पठवनि गोपल
की, कछू न जानी
जात।।
घर-घर कर ओड़त
फिरे, तनक दही के
काज।
कहा भयो जो अब
भयो, हरि को
राज-समाज।
हौं आवत नाहीं
हुतौ, वाही पठयो
ठेलि।।
अब कहिहौं
समुझाय कै, बहु धन धरौ
सकेलि।।
व्याख्या – कृष्ण से मिलकर वापस आते हुए सुदामा सोच रहे हैं कि वैसे
तो उन्होंने बड़ी प्रसन्नता दिखाई थी, बहुत आदर भी दिया था। पर विदाई के अवसर पर इस तरह खाली हाथ भेज
दिया । वास्तव में कृष्ण को समझना आसान नहीं है । सुदामा इस वक्त कृष्ण से नाराज हैं और सोचते हैं
कि यह वही कृष्ण है जो बचपन में थोड़ी सी दही माँगने के लिए घर-घर फिरता था । अब
राजा बनने पर भी यह कुछ नहीं दे पाया । मैं
तो आना ही नहीं चाहता था वह तो पत्नी ने ही जिद्द करके भेज दिया । अब जाकर पत्नी
से कहूँगा कि बहुत धन मिल गया है अब इसे सँभालकर रखो।
काव्यांश-5
वैसोई राज समाज
बने, गज, बाजि घने मन
संभ्रम छायो।
कैधों परयो
कहुँ मारग भूलि, कि फैरि कै मैं अब द्वारका आयो।।
भौन बिलोकिबे
को मन लोचत, सोचत ही सब
गाँव मँझायो।
पूँछत पाँडे
फिरे सब सों, पर झोपरी को
कहुँ खोज न पायो।।
व्याख्या – सुदामा जब अपने गाँव पहुँचते हैं
तो पहचान ही नहीं पाते क्योंकि वह तो द्वारका जैसा ही सुंदर बन गया था । वैसे ही महल और वहाँ उसी प्रकार के हाथी-घोड़े थे ।
ये देखकर सुदामा के मन में भ्रम हो गया कि कहीं मैं रास्ता तो नहीं भटक गया हूँ या
भूलवश फिर से द्वारका तो नहीं पहुँच गया
हूँ ? उन भवनों की सुंदरता को को देखने के
लालच में वे गाँव के बीच में चले गए। वहाँ जाकर सुदामा ने सभी से अपनी झोंपड़ी के
बारे में पूछा पर वे अपनी झोंपड़ी को खोज नहीं पाए।
काव्यांश-6
कै वह टूटी-सी
छानी हती, कहँ कंचन के अब
धाम सुहावत।
कै पग में पनही
न हती, कहँ लै गजराजहु
ठाढे़ महावत।।
भूमि कठोर पै
रात कटै, कहँ कोमल सेज
पर नींद न आवत।
कै जुरतों नहिं कोदों -सवाँ, प्रभु के परताप ते दाख न भावत।
व्याख्या – अपने बचपन के मित्र श्रीकृष्ण के
बारे में सुदामा सोचने लग जाते हैं कि कहाँ तो मेरे पास टूटी-सी झोंपड़ी थी और कहाँ अब सोने के महल
सुशोभित हो रहे हैं। कहाँ तो मेरे पैरों
में जूते तक नहीं होते थे और अब द्वार पर महावत के साथ हाथी खड़े रहते हैं । कभी
कठोर धरती पर सोना पड़ता था और अब कोमल बिस्तर पर भी नींद नहीं आती है। पहले मेरे
पास खाने के लिए दो वक्त के चावल भी नहीं थे और कहाँ अब किशमिश-मेवा भी अच्छे नहीं लगते।
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