महाकवि देव
परिचय : सन् 1673, इटावा - मृत्यु- सन् 1768) रीतिकालीन कवि थे।
देव इटावा के रहने वाले मुग़ल कालीन कवि । इनका पूरा नाम देवदत्त था।उनकी प्रसिद्ध पुस्तकों में अष्टयाम, भाव विलास, भवानी विलास, कुशल विलास, रस चन्द्रिका, प्रेम चन्द्रिका, सुजान विनोद, जाति विलास प्रमुख हैँ ।रस विलास ग्रंथ जो भोगीलाल के लिए लिखा गया
था उसका आरंभिक सवैया यहाँ पर लिया गया है । देव के काव्य की आत्मा रस है । देव की
भाषा में कोमलता , संगीतात्मकता और अनुप्रास अलंकार की
छटा देखने को मिलती है ।
1 . सवैया
पाँयनि नूपुर मंजु बजै, कटि
किंकिनि कै धुनि की मधुराई।
साँवरे अंग लसै पट पीत, हिये हुलसै बनमाल सुहाई।
माथे किरीट बड़े दृग चंचल, मंद
हँसी मुखचंद जुन्हाई।
जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर, श्रीब्रजदूलह
‘देव’ सहाई॥
नुपूर
- पायल , मंजु
– सुंदर , कटि
- कमर , किंकिंनी- करघनी , लसै - सुशोभित । पट - वस्त्र , पीत - पीला
हुलसे-
प्रसन्न , किरीट- मुकुट , दृग -
नेत्र ।जुन्हाई - चांदनी ।
भावार्थ : कृष्ण के रूप-सौंदर्य का बड़ा ही मनोरम वर्णन
किया गया है। पैरों में बजती हुई पायल और कमर में बंधी हुई करघनी बहुत ही मधुर
ध्वनि पैदा कर रही हैं। उनके सांवले शरीर पर पीले रंग का वस्त्र सुशोभित हो रहा
है। उनके गले में आनंदित हो रही पुष्पों की माला सुशोभित हो रही है। श्री कृष्ण के
माथे पर मुकुट है, उनकी बड़ी-बड़ी आँखें चंचलता से भरी हुई हैं और उनके मुख रूपी चाँद पर चाँदनी जैसी मंद मुस्कान है। कवि
के अनुसार बृज-दूल्हे (श्री कृष्ण) इस संसार रूपी मंदिर के सुंदर दीपक हैं।
· शिल्प: श्री कृष्ण जी को ब्रज का दूल्हा बताया
गया है।
· ब्रजभाषा है
· सवैया छंद है।
· मुख चन्द्र और जंग मंदिर में रूपक
अलंकार है।
· पट पीत, कटि किंकिंनि , हिय हुलसे में अनुप्रास अलंकार का सुन्दर
प्रयोग किया गया है।
· श्रृंगार रस
· माधुर्य गुण है।
2 . कवित्त
(1)
डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के,
सुमन झिंगूला सोहै तन छबि भारी दै।
पवन झूलावै,
केकी-कीर बतरावैं ‘देव’,
कोकिल हलावै हुलसावै कर तारी दै।।
पूरित पराग सों उतारो करै राई नोन,
कंजकली नायिका लतान सिर सारी दै।
मदन महीप जू को बालक बसंत ताहि,
प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै॥
द्रुम – पेड़ , सुमन
झिंगूला – फूलों का ढीला-ढीला वस्त्र , केकी – मोर ,
कीर - तोता , कंजकली – कमल की कली , महीप – राजा ।
भावार्थ : कवि ने वसंत को एक बालक के रूप में दिखाया है ।
वसंत रूपी शिशु के लिए पेड़ की डालियां पालना
तो वृक्ष की पत्तियों का पालने में बिछौना बिछा हुआ है । बालक बसंत ने फूलों का ढीला
-ढाला वस्त्र पहना हुआ है । हवा पालने को
झूला रही है । मोर और तोता उससे बातें कर रहे हैं । कोयल तालियां बजाकर उसे प्रसन्न कर रही
है। कमल की कली रुपी नायिका लताओं रुपी साड़ी को अपने सिर तक धारण करके पराग रुपी
राई नमक से बालक बसंत की नज़र उतार रही है । कामदेव के बालक वसंत को रोज सुबह गुलाब
चुटकी बजाकर चट की आवाज करते हुए जगा रहा है।
· शिल्प : ब्रजभाषा
· कवित्त छंद है।
· कंजकली नायिका और बालक बसंत में रूपक
अलंकार है।
· केकी-कीर , पूरित
पराग , सिर
सारी ,
मदन महीप ,बालक बसंत में अनुप्रास अलंकार का सुन्दर प्रयोग किया गया
है।
· प्रकृति का मानवीकरण होने से मानवीकरण
अलंकार है ।
3
कवित्त (2)
फटिक सिलानि सौं सुधारयौ सुधा मंदिर,
उदधि दधि को सो अधिकाइ उमगे अमंद।
बाहर ते भीतर लौं भीति न दिखैए ‘देव’,
दूध को सो फेन फैल्यो आँगन फरसबंद।
तारा सी तरुनि तामें ठाढ़ी झिलमिली होति,
मोतिन की जोति मिल्यो मल्लिका को मकरंद।
आरसी से अंबर में आभा सी उजारी लगै,
प्यारी राधिका को प्रतिबिंब सो लगत चंद॥
सिलानि-शिला , उदधि –
समुंद्र ,
उमगे – उमड़ना , भीति – दीवार , मल्लिका – फूल , आरसी - आइना ।
भावार्थ : चांदनी रात की सुंदरता का वर्णन किया गया है। स्वच्छ
सुधामयी चाँदनी रात में चारों ओर फैले उज्ज्वल प्रकाश में आसमान को देखने से ऐसा
प्रतीत होता है मानो पारदर्शी शिलाओं, स्फटिक से बना हुआ कोई सुधा मंदिर हो। ऐसा लग
रहा है दही का समुंद्र तीव्र गति से उमड़कर चारों तरफ फैल गया हो । बाहर से भीतर तक दीवार भी दिखाई नहीं दे रही है
। दूध के झाग फर्श पर फैल गए हैं । तारे इस तरह जगमगाते हुए ऐसे लग रहे है जैसे
तारों रुपी युवतियाँ हिलमिला रही हों । मोतियों की चमक और मल्लिका के फूल का रस
पूरे वातावरण में महक रहा है । पूरा आकाश
एक दर्पण है। आकाश रुपी दर्पण में चाँद की चमक ऐसी लग रही है जैसे राधा अपना चेहरा
निहार रही हो अर्थात राधा का प्रतिबिम्ब ही यहाँ पर चाँद को कहा गया है ।
· ब्रजभाषा है
· कवित्त छंद है।
· उदधि दधि में रूपक अलंकार है।
· आरसी से अंबर में आभा सी उजारी लगे –, तारा
सी तरुनि में उपमा अलंकार
· सौं सुधारयौ सुधा, मिल्यो मल्लिका, फेन फैल्यो में अनुप्रास अलंकार का
सुन्दर प्रयोग किया गया है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें