बुधवार, 13 अक्टूबर 2021

सहर्ष स्वीकारा है : गजानन माधव मुक्तिबोध

 

                       सहर्ष स्वीकारा है : गजानन माधव मुक्तिबोध

 

‘सहर्ष स्वीकारा है कविता भूरी-भूरी खाक-धूल‘ काव्य-संग्रह से ली गई है। एक होता है-‘स्वीकारना’ और दूसरा होता है-‘सहर्ष स्वीकारना’ यानी खुशी-खुशी स्वीकार करना। यह कविता जीवन के सब सुख-दुख, संघर्ष-अवसाद, उठा-पटक को सम्यक भाव से अंगीकार करने की प्रेरणा देती है। कवि को जहाँ से यह प्रेरणा मिली, कविता प्रेरणा के उस उत्स तक भी हमको ले जाती है।

 

ज़िन्दगी में जो कुछ है, जो भी है

सहर्ष स्वीकारा है;

इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है

वह तुम्हें प्यारा है।

गरबीली ग़रीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब

यह विचार-वैभव सब

दृढ़्ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब

मौलिक है, मौलिक है

इसलिए कि पल-पल में

जो कुछ भी जाग्रत है अपलक है--

संवेदन तुम्हारा है !!

 

यहाँ पर कवि ने अपनी  जिंदगी में जो कुछ है, जैसा भी है, उसे खुशी से स्वीकार किया है । वह कहता है क्योंकि  मेरे पास जो कुछ भी है, वह उसके प्रिय पात्र को अच्छा लगता है। मेरी स्वाभिमानयुक्त गरीबी, गरीबी से प्राप्त जीवन के गंभीर अनुभव, अनुभवों से निर्मित विचारों रुपी दौलत , व्यक्तित्व की दृढ़ता, मन में बहती भावनाओं की नदी-वैचारिक नदी--  सब मौलिक हैं क्योंकि मेरे जीवन में हर क्षण जो कुछ घटता है, जो कुछ व्यक्त है स्पष्ट है , उपलब्धि है,मेरी नज़र में है ।  वह सब कुछ तुम्हारी प्रेरणा से हुआ है।

विशेष-

 

क.   मुक्त छंद

ख.   संबोधन शैली

ग.    मौलिक है’ की आवृत्ति प्रभावी

घ.    विचार-वैभव’ और ‘भीतर की सरिता’ में रूपक अलंकार

ङ.   ‘पल-पल’ में पुनरुक्ति अलंकार

च.   सहर्ष स्वीकारा’, ‘गरबीली गरीबी’, ‘विचार-वैभव’ में अनुप्रास अलंकार ।

छ.   खड़ी बोली ।

ज.     ‘गरबीली’, ‘गंभीर’ आदि विशेषणों का सुंदर प्रयोग

 

 


जाने क्या रिश्ता है,जाने क्या नाता है

जितना भी उँड़ेलता हूँ,भर भर फिर आता है

दिल में क्या झरना है?

मीठे पानी का सोता है

भीतर वह, ऊपर तुम

मुसकाता चाँद ज्यों धरती पर रात-भर

मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है!

 

कवि अपने प्रिय पात्र के साथ अपने रिश्ते को नाम नहीं दे पा रहा है । जितना उससे दूर जाने की कोशिश करता है उतना ही रिश्ता गहरा होता जाता है । कवि कहता है ,  मैं अपने हृदय में समाए हुए तुम्हारे स्नेह रूपी जल को जितना बाहर निकालता हूँ, वह फिर-से उमड़कर भरता चला जाता है ।  ऐसा लगता है मानो दिल में कोई झरना बह रहा है। मन में तुम्हारा प्रेम है और सामने  तुम्हारा चाँद जैसा मुस्कराता हुआ चेहरा है । जैसे चाँद प्रकाश से धरती को प्रकाशित करता रहता है। कवि का हृदय भी प्रिय पात्र के खिलते हुए चेहरे से प्रसन्न रहता है ।

 

शिल्प :

 

क.   मुक्त छंद

ख.   दिल में क्या झरना है’ में प्रश्न अलंकार

ग.    भर-भर’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार

घ.    जितना भी उँड़ेलता हूँ भर-भर फिर आता है’ में विरोधाभास अलंकार

ङ.   मीठे पानी का सोता ’ में रूपक अलंकार

च.   प्रिय के मुख की चाँद के साथ समानता --  उपमा अलंकार

छ.  चाँद का मानवीकरण

ज.   खड़ी बोली

झ.   लाक्षणिकता

 

 

सचमुच मुझे दण्ड दो कि भूलूँ मैं भूलूँ मैं

तुम्हें भूल जाने की

दक्षिण ध्रुवी अंधकार-अमावस्या

शरीर पर,चेहरे पर, अंतर में पा लूँ मैं

झेलूँ मै, उसी में नहा लूँ मैं

इसलिए कि तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित

रहने का रमणीय यह उजेला अब

सहा नहीं जाता है।

नहीं सहा जाता है।

ममता के बादल की मँडराती कोमलता--

भीतर पिराती है

कमज़ोर और अक्षम अब हो गयी है आत्मा यह

छटपटाती छाती को भवितव्यता डराती है

बहलाती सहलाती आत्मीयता बरदाश्त नही होती है !!!

 

कवि अपने प्रिय पात्र को भूलना चाहता है। इसलिए कहता है कि प्रिय उसे भूलने का दंड दे। वह अत्यधिक भावावेश में है और प्रिय के प्रेम से उबरना चाहता है । वह अपने आपको दक्षिण ध्रुवों पर अमावस्या की रात को होने  वाले सघन अंधकार में विलीन हो जाना चाहता है। यही नहीं वह उस अंधकार को अपने शरीर पर , चेहरे पर और हृदय पर झेलना चाहता है और उसमें पूरी तरह नहा लेना चाहता है । क्योंकि प्रिय के स्नेह के उजाले ने उसे पूरी तरह घेर लिया है , वह उससे पूरी तरह ढक चुका है ।  और यह स्थिति अब उसके लिए असहनीय हो गई  है।  ममता मयी कोमलता अब उसे चुभने लगी है , उसके हृदय को पीड़ा पहुँचाती है। इस ममता के आवरण से उसकी आत्मा बहुत कमजोर और शक्तिहीन हो गई है। उसे छटपटाहट होती है और  भविष्य के बारे में सोचकर डर लगने लगा है। अब कवि को  उसका बहलाना, सहलाना और अपनापन सहन नहीं हो रहा है ।

 

शिल्प -

 

क.   मुक्त छंद

ख.   खड़ी बोली 

ग.    संबोधन शैली है।

घ.    अंधकार-अमावस्या निराशा के प्रतीक

ङ.   ममता के बादल’, ‘दक्षिण ध्रुव अंधकार-अमावस्या’ में रूपक अलंकार

च.   छटपटाती छाती’ में अनुप्रास अलंकार,

छ.   बहलाती-सहलाती’ में स्वर मैत्री

ज.   सहा नहीं जाता है’ की आवृति से दर्द की अधिकता का बोध।

 

 

 

सचमुच मुझे दण्ड दो कि हो जाऊँ

पाताली अँधेरे की गुहाओं में विवरों में

धुएँ के बाद्लों में

बिलकुल मैं लापता!!

लापता कि वहाँ भी तो तुम्हारा ही सहारा है!!

इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है

या मेरा जो होता-सा लगता है, होता सा संभव है

सभी वह तुम्हारे ही कारण के कार्यों का घेरा है, कार्यों का वैभव है

अब तक तो ज़िन्दगी में जो कुछ था, जो कुछ है

सहर्ष स्वीकारा है

इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है

वह तुम्हें प्यारा है ।

 

कवि अपने प्रिय पात्र  के स्नेह से दूर चले जाना चाहता है। वह उसी से दंड की याचना करता है। कवि  चाहता है कि वह पाताल की अँधेरी गुफाओं व बिलों  में खो जाए। और वह धुएँ के बादलों के समान गहन अंधकार में लापता हो जाए । कवि अपने-आप को खो देना चाहता है लेकिन अंततः वह स्वयं स्वीकार कर लेता है कि ऐसी जगहों पर भी उसे अपने प्रिय पात्र  का ही सहारा मिलेगा । क्योंकि उसके जीवन में जो कुछ भी है या जो कुछ उसे अपना होता सा लगता है, वह सब उसी के  कारण है। जो कुछ भी मेरे पास है या मेरा होने वाला है या भविष्य में मेरा होने की संभावना है  सभी कुछ प्रिय पात्र के कारण ही है । कवि ने अपनी जिंदगी के हर सुख-दुख, सफलता-असफलता को प्रसन्नतापूर्वक इसलिए स्वीकार किया है क्योंकि उसके प्रिय को वह सब प्यारा  है।

शिल्प :

क.   खड़ी बोली

ख.   मुक्त छंद

ग.    संबोधन शैली

घ.    लाक्षणिकता

ङ.   पाताली अंधेरे’ व ‘धुएँ के बादल’ आदि उपमान विस्मृति के लिए प्रयुक्त

च.   दंड दो’ , कारण के कार्यों का , में अनुप्रास अलंकार

छ.   लापता कि ...  सहारा है!’ में विरोधाभास अलंकार

ज.   दृश्य बिंब


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